Sunday, December 23, 2012

शाइस्ता

अभी तो ख्वाब मेरी आँखों के सम्भले भी नहीं थे,
यूँ झकझोर के मुझको क्यों उठा दिया,
ज़िन्दगी कभी तो जी लेने दे।।।

अरसे बाद शाइस्ता प्याले ने लबों को छुआ था,
क्यों बेरहमी से उस प्याले को गिरा दिया,
ज़िन्दगी कभी तो पी लेने दे।

मुद्दतों के बाद तेरी बेरुखी में सुकून आया था ,
तून नज़ाकत से मुझे फिर डरा दिया,
ज़िन्दगी कभी तो सांस लेने दे।

Wednesday, December 19, 2012

AGONY

Why the hell everyone is asking about trials and setting up courts, are they trying to prove that "SHE" has been raped by carefully debating and mulling over the subject.

Advocate 1: My lord "SHE" is accusing my counsel of raping her. what proof does she has of that? It could very well have been a consensual intercourse. Because from where I am standing, I cannot see any signs of rape.

Advocate 2: I object your honor, defense council is making false assumptions. I have enough evidence supporting the fact that the intercourse was in fact a rape not a consensual sex. Madam could you please show us the scratches and bruises on your conscious, sub-conscious and unconscious as well as your genitalia.

Spare 'HER' the agony my fellow empathic citizens, just catch the bastards and incarcerate them. Don't rape 'HER' over and over and over again with your lacerated words, just to establish the fact that 'SHE' actually got raped.

Tuesday, December 18, 2012

जुम्बिश

मुझसे मेरी राहों की कशिश छीन ली,
रूहाफ्ज़ा लफ़्ज़ों की बंदिश छीन ली,
कहूँ भी तो कैसे की तू मेरा क्या है,
मुझसे मेरे लबों की जुम्बिश छीन ली।।।।

Monday, December 10, 2012

चेहरा

बहुत कोशिश की पहचानने की उसे,
पर आईने में वो चेहरा मेरा नहीं था,
नश्तर सी एक हँसी को संभाले,
बेरुखा  सा वो चेहरा मेरा नहीं था....

Tuesday, December 4, 2012

सन्नाटा

धोती खोल के चिल्लाता है,
ये तो पागल सन्नाटा है,
पकड़ो पकड़ो उसकी बांह धरो,
उसमे आकंठ अंगार भरो,
बोल मनु क्यों सकुचाता है,
ये तो पागल सन्नाटा है।

राम के कहने पर बैदेही,
जब अग्नि में समायी थी,
बजरंग लक्ष्मण सब वीरों की,
ग्रीवा ही जैसे मुरझाई थी,
एक शब्द भी विरोध का ,
न कोई मुख बोला था,
मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा को,
कहाँ किसी ने टोला था,
अश्रुपूरित नयनो में सिया के,
बस यही दुहाई थी,
नारी को ही जो परखे पग पग,
कैसा रे तू विधाता है,
ये तो पागल सन्नाटा है।

कुत्सित है विकृत एक विकार है,
मनु पुत्रों तुम्हारे पौरुष को धिक्कार है,
निर्मम हत्या की है तुमने,
अंधियारे में छिपकर,
अपने ही पैरों को काटे,
ऐसे हो बुद्धिधर ,
हो शक्तिशाली संपूर्ण स्वयं,
ये मिथ्या संवाद प्रवर,
कायर हो तुम,वो तुमको भरमाता है,
ये तो पागल सन्नाटा है। 

Monday, December 3, 2012

टुकड़ा


कभी तो उछल के वो चाँद काट ले,

बड़े बड़ों की नाक पे वो दांत कांट ले]
रहे सौ परतों में वो छुप के ऐसे]
हो गोया एक टुकड़ा रात का।
 

Friday, November 30, 2012

बारहां

बारहां सोचता हूँ तुझसे मोहब्बत कर लूँ,
तेरी साँसों को अपने सीने में भर लूँ,
तेरे होठों पे खेलती हंसी को काजल कर लूँ,
बारहां सोचता हूँ तुझसे मोहब्बत कर लूँ।

मैं तेरे लम्स-ओ-लम्हों में समाया हूँ,
तू कहती है मैं तेरा सरमाया हूँ,
चाहता मैं भी हूँ की तेरी सोहबत कर लूँ,
बारहां सोचता हूँ तुझसे मोहब्बत कर लूँ।

Thursday, November 29, 2012

व्यथा

'प्रभु ये तो अन्याय है।  जिस स्त्री के सतीत्व की सारा समाज दुहाई दे रहा है, आप उसे ही अग्नि परीक्षा देने पे विवश कर रहे हैं', अत्यंत व्यथा से भर कर और असीम साहस  जुटाकर हनुमान ने यह कहने की चेष्टा की थी।  यह यक्ष प्रश्न था तो सबके ह्रदय में पर राम से कहने का बल किसी में न था।  सबने एकत्रित होकर बड़ी ही घुटी सी वाणी में ये बात बजरंग से कही थी। एक भय यह भी था की कहीं राम के विरुद्ध कुछ कहने से उन्हें पवन पुत्र के कोप का ही भाजन न बनना पड़  जाए।  परन्तु जब मारुती ने भी उनसे सहमति जताई तो उन सबको थोड़ी आशा बंधी।  'इतनी मानसिक यातना क्या कम थी उस दुर्भागिनी के लिए की अब स्वयं प्रभु भी उसे दंड देने की तयारी कर चुके हैं', यह कहते कहते जाम्बवंत की आँखें भर आई थीं।  सुग्रीव उन्हें शांत करने करने लगे थे और कातर नयनों से दुःख भंजन को देख रहे थे मानो कहना चाह रहे हों कि, 'हे दुःख भंजन अब तुम ही  कुछ कर सकते हो।'  इन सबकी पीड़ा ने हनुमान को और भी व्यथित कर दिया था।  प्रातः जिस क्षण प्रभु ने यह घोषणा की थी उस क्षण ने हनुमान का सच ही डगमगा दिया था। वह हर संभव प्रयास कर चुके थे प्रभु के इस निर्णय को समझने का पर सब व्यर्थ। एक दुविधा उन्हें अन्दर ही अन्दर खाए जा रही थी, क्या महत्वपूर्ण है, ' प्रेम जिसके प्रणेता स्वयं प्रभु हैं या वो उपाधि जो समाज ने प्रभु को दी है'।  कैसे कहेंगे वह अपने आराध्य से यह बात।

Tuesday, November 27, 2012

नश्तर

बहुत देर तक अविनाश सामने पड़ी टेबल पर अपना सर पटकता रहा।  पर अगर इतना भर करने से अगर सच बदल जाता तो आज दुनिया की सूरत ही कुछ और होती। उसे समझ ही नहीं आ रहा था की यह उसके साथ ही क्यों हो रहा है। अच्छी भली ज़िन्दगी चल रही थी, जाने कहाँ से यह घटिया सच निकलके उसकी आँखों के सामने आ गया था। कमबख्त पड़ा रहता वहीं कोने में तो क्या बिगड़ जाता। रोज़ वह घड़ी ही देखता रहता था की कैसे छह बजे और वह उड़ के घर पहुँच जाए।  दिन भर सुमन से दूर रहने के बाद उसे घबराहट होने लगती है। आज वही घबराहट घुटन में कैसे बदल गयी है।  क्यों उसका घर जाने का मन नहीं हो रहा है। कहीं भाग के भी नहीं जा सकता।  सिर्फ एक कागज़ के टुकड़े ने कैसे उसकी दुनिया खत्म कर दी।  सुमन ने इतना बड़ा फैसला अकेले कैसे ले लिया।  कहाँ से आई उसमे इतनी ताक़त की वह अकेले ही उन दोनों के प्यार के स्पंदन का गला घोंट दे।  एक सांस लेती ख़ुशी को पलभर में उसने काली रात का हिस्सा कर दिया।  अफ़सोस का एक कतरा आंसू भी उसकी सुखी आँखों में नहीं था। वो चेहरा जिसकी एक झलक ज़िन्दगी को रूहानी कर देती थी, उस चेहरे की याद भी अब अविनाश के सीने में नश्तर सी चुभ रही थी।  वह सांस भी नहीं ले पा रहा था।




* image courtesy Google

मरोड़

कड़ाही में मेथी का साग छन् से क्या पड़ा दिल ने यादों के पिंजड़े खोल दिए।  एहसासों की हर शाख पर अब एक पंछी बैठा था। सबकी अपनी धुनें सबकी अपनी कहानियां।  मैं अकेला उस पुराने पेड़ के नीचे खड़ा रहा और वो मुझे कहानियां सुनाते रहे।  कमबख्त फिर भी कहीं कुछ खाली खाली सा लगता रहा।  गूंजता रहा।  मैं निवालों से उससे जल्दी जल्दी भरने की कोशिश करता गया।  विडम्बना ये जितना मैंने उसे भरना चाहा वो और खाली होता चला गया।  मेरे अन्दर बढ़ता चला गया। मरोड़ पड़ती रही। रात गुज़रती रही।  कपोत अपनी अपनी ढपली बजाने में लगे रहे।  थोड़ी देर पहले का संगीत अब शोर में बदल चूका था।  बचा मैं, मेरा मेथी का साग और सुने कमरे में सांय-सांय करती हवा।

Monday, November 26, 2012

रंज

इतने अरसे बाद आज तुम अचानक दिख गए,
देर तक मैं तुम्हे पहचानने की कोशिश करता रहा,
जज्बातों को जलाने  की कोशिश करता रहा,
एक टुकड़ा ही सही मिल  जाए तुझसे रंज का,
सारी रात मैं दिल को कुरेदता रहा।


Sunday, November 25, 2012

Contentment

The very idea of contentment and closure, as they say, is as intriguing an idea as the existence of GOD.  No one really knows the truth.  All we have are some phony words and some extraneous experiences(which by the way I find phony too).  I mean the very idea that someone's death could bring you closure is funny as it sounds.  They hanged him(on public demand) and all one could see on the faces of victim was a feeling of emptiness.  There wasn't that thread of satisfaction that they all were so gaga about.  Forget about the closure, there was then another demand to award some other terrorist death penalty to get some more closure.  This can go on for forever like a vicious circle. It is like finding the very place where earth and heavens meet.  No matter how hard you try, you keep moving in circles. 

Friday, November 23, 2012

चप्पू

एक महीने बचे हैं दुनिया खत्म होने को और किसी को कोई फ़िक्र  ही नहीं है।  पिछले साल तक तो ऐसे चिल्ला रहे थे की पूछो मत लगता था की किसी ने इनके जागते में में इनकी नाक के बाल तोड़ लिए हों।  भाइयों अगर प्रलय के बाद के लिए भी बचाना और छिपाना शुरू कर दिया है तो हमें भी बता दो।  हम भी एक दो जोड़ी चप्पू रख ले अंगोछे में।  अपनी भी नैया पार हो जाएगी।  बेचारे कसाब  को भी लटका दिया वर्ना वो भी देख लेता की वो कितनी भी कोशिश कर ले क़यामत तो आनी  ही है।  खैर वो भी ऊपर जाके मज़े ही लूट रहा होगा।  नीचे वालों को भी संतोष हो गया की उन्होंने अपने हाथों ये नेक कार्य किया।  अगर किसी दैवीय प्रयोजन से ये सम्पन्न हुआ होता तो इतने घने संतोष की प्राप्ति असंभव हो जाती।  हमारे आदरणीय नेतागण भी इसीलिए शीतकालीन सत्र की ऐसी तैसी कर रहे हैं कि जब दुनिया ख़त्म होनी ही है तो कोई अच्छा काम करने से क्या फायदा। मैं तो कहता हूँ जिसको जितना पाप करना है कर लो यही समय है।  मैं भी चला कुछ छूटे  हुए पापों को पूरा करने। मेरा मतलब है चप्पू का जुगाड़ करने।

Thursday, November 22, 2012

फुर्र

बहुत दिनों के बाद आज जब कुछ लिखने बैठा तो लगा की शब्द ही सारे कहीं छुप से गए हैं।  घंटो मशक्कत की सिर धुना और निकला कुछ नहीं। जैसे गधे के सिर से सींग गायब होती है वैसे ही मेरे प्यारे से (गधा न समझिएगा ) भेजे से सारे मुद्दे ही फुर्र हो गए।  माँ सही कहती थी लिखा करो भले ही क ख ग घ लिखना पड़े तो क्या।  अब देखो क्या उगला है शायद मैं भी न समझ पाऊं।  खैर अब जब शुरू किया है तो पूरा तो करना ही पड़ेगा।  कितना कुछ घटा है पिछले दिनो, मेरी लव स्टोरी का लेवल, मेरे बैठने के कारण  खाने का टेबल, मेरे पुण्यो का घड़ा, और कसाब को लटकना पड़ा।  जितनी ख़ुशी इस देश के लोगों को कसाब के जाने की है उतनी तो कभी दीपावली या और किसी त्यौहार की नहीं हुई।  अब समझ आया की जब हम सबके गॉर्जियस बाबा रामदेव ने भ्रस्टाचारियों को फ़ासी देने की बात कही थी तो सरकार के अन्दर इतनी उथल-पुथल क्यों मच गयी थी।  बेचारे डर गए थे की कहीं उनके कारण गरीब जनता को ख़ुशी न मिल जाए।  खैर आज के लिए इतनी ही बकवास काफी है।  आगे आपके सामने हमारे पसंदीदा घटिया टीवी चैनलों की तरह और भी बकवास आइटम पेश करता रहूँगा।  तब तक के लिए अपना ख़याल रखिये और अब तक पैदा न हुई पीढ़ियों के लिए संपत्ति जमा करते रहिये।


विशेष: आपके द्वारा उपहार में  दी जाने वाली  टी.र.पी   की उम्मीद में....

रहमो करम

ज़िन्दगी के रहमो करम इतने रहे ,
कभी लफ़्ज़ों में कहे कभी अश्कों में बहे!!!

Sunday, February 12, 2012

अश्क

तेरी आँखों के अश्क मेरी आँखों से गिरते रहे,
कुछ इस तरह हम जीते रहे मरते रहे,

रह रह के जो उड़ती थी खुशबु दामन से हयात की,
उन सोंधे लम्हों को अब हर लम्हा तरसते रहे...

Saturday, February 11, 2012

फ़साने

लोग कहते हैं की मुझे जिक्रे मोहब्बत करना था,
जो था मेरे दिल का हाल उनसे बयान करना था,
मेरे ख्यालों में भी ये बात कई दफा आई थी,
इसी तखय्युल  में कई रातें जागते हुए बितायी थी,
फिर भी लरजते होंठ रुक जाते थे ये बताने में ,
क्युकी डर था उसका नाम भी आएगा मेरे फ़साने में.

बात

वो सामने आये तो मगर , हम आँखों के जाम भर न सके,
दिल में थे जो जज़्बात, उनको पैगाम कर न सके,
रुके रुके से थे कदम, बेकाबू थी हर धड़कन,
की होंठ काँपे भी तो क्या, जो कहने थी बात वो कह न सके.

Thursday, February 9, 2012

रंज

रंज साँसों को है मुझसे तेरे जाने के बाद,
कितना भी रोया करू ये ठंडी नहीं होती.

भटकती रही उम्रें यूँ ही सरे बियाबान,
सजाओ कितना ही  राहें  मंजिल  नहीं होती.