Tuesday, November 27, 2012

मरोड़

कड़ाही में मेथी का साग छन् से क्या पड़ा दिल ने यादों के पिंजड़े खोल दिए।  एहसासों की हर शाख पर अब एक पंछी बैठा था। सबकी अपनी धुनें सबकी अपनी कहानियां।  मैं अकेला उस पुराने पेड़ के नीचे खड़ा रहा और वो मुझे कहानियां सुनाते रहे।  कमबख्त फिर भी कहीं कुछ खाली खाली सा लगता रहा।  गूंजता रहा।  मैं निवालों से उससे जल्दी जल्दी भरने की कोशिश करता गया।  विडम्बना ये जितना मैंने उसे भरना चाहा वो और खाली होता चला गया।  मेरे अन्दर बढ़ता चला गया। मरोड़ पड़ती रही। रात गुज़रती रही।  कपोत अपनी अपनी ढपली बजाने में लगे रहे।  थोड़ी देर पहले का संगीत अब शोर में बदल चूका था।  बचा मैं, मेरा मेथी का साग और सुने कमरे में सांय-सांय करती हवा।

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