Thursday, November 29, 2012

व्यथा

'प्रभु ये तो अन्याय है।  जिस स्त्री के सतीत्व की सारा समाज दुहाई दे रहा है, आप उसे ही अग्नि परीक्षा देने पे विवश कर रहे हैं', अत्यंत व्यथा से भर कर और असीम साहस  जुटाकर हनुमान ने यह कहने की चेष्टा की थी।  यह यक्ष प्रश्न था तो सबके ह्रदय में पर राम से कहने का बल किसी में न था।  सबने एकत्रित होकर बड़ी ही घुटी सी वाणी में ये बात बजरंग से कही थी। एक भय यह भी था की कहीं राम के विरुद्ध कुछ कहने से उन्हें पवन पुत्र के कोप का ही भाजन न बनना पड़  जाए।  परन्तु जब मारुती ने भी उनसे सहमति जताई तो उन सबको थोड़ी आशा बंधी।  'इतनी मानसिक यातना क्या कम थी उस दुर्भागिनी के लिए की अब स्वयं प्रभु भी उसे दंड देने की तयारी कर चुके हैं', यह कहते कहते जाम्बवंत की आँखें भर आई थीं।  सुग्रीव उन्हें शांत करने करने लगे थे और कातर नयनों से दुःख भंजन को देख रहे थे मानो कहना चाह रहे हों कि, 'हे दुःख भंजन अब तुम ही  कुछ कर सकते हो।'  इन सबकी पीड़ा ने हनुमान को और भी व्यथित कर दिया था।  प्रातः जिस क्षण प्रभु ने यह घोषणा की थी उस क्षण ने हनुमान का सच ही डगमगा दिया था। वह हर संभव प्रयास कर चुके थे प्रभु के इस निर्णय को समझने का पर सब व्यर्थ। एक दुविधा उन्हें अन्दर ही अन्दर खाए जा रही थी, क्या महत्वपूर्ण है, ' प्रेम जिसके प्रणेता स्वयं प्रभु हैं या वो उपाधि जो समाज ने प्रभु को दी है'।  कैसे कहेंगे वह अपने आराध्य से यह बात।

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