Thursday, January 22, 2015

खोज

फ़क़त इक कली में हासिल-ए-बहार ढूंढते हैं,
हम शगुफ़्ता चेहरों में इश्क के आसार ढूंढते हैं.

जिसके ज़रिये दो घरों की बातें हो जाती थीं,
कहाँ गया खिड़कियों से बंधा वो तार ढूंढते हैं.

इक अब्र आवारा मिरे सर-ए-बाम क्या दिखा,
लोग मेरे आँगन में खोयी बहार ढूंढते हैं.

किसने कब क्यों कैसे गिरायी वो दीवार ख़ुदा जाने,
क़ाज़ी-ए-फ़ासिल मिरे लिबास तले औज़ार ढूंढते हैं.

कहीं से हवाएं मेरे घर की ख़ुशबू ला रहीं हैं,
आओ उस सोंधे से चूल्हे की दयार ढूंढते हैं.

कश्ती है दरिया है और नाखुदा भी साथ है,
उस पार उतरने को अब एक पतवार ढूंढते हैं.

मुद्दतों बाद हमने उसकी कोई तस्वीर देखी थी,
अब घर के गोदाम में वो अखबार ढूंढते हैं.

साज-ओ-सामान के साथ वो घर से चला गया,
शहर-शहर हम फिर से रोज़गार ढूंढते हैं.

इस से पहले की हम ठोकरों से शर हो जाएँ,
पीठ लगाने को कोई दीवार ढूंढते हैं.

अब मिलना है सुकून तो माँ की गोद में मिलेगा,
हम उसको इस जहाँ में बेकार ढूंढते हैं. 

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