Friday, January 23, 2015

आराई

चलो आज फ़रिश्तों से ख़ुदाई मांगी जाए,
रिसते हुए ज़ख्मों की दवाई मांगी जाए.

उसकी एक झलक देखी और शरीर हो गए,
ये कैसी मोहब्बत इससे रिहाई मांगी जाए.

उसकी शान में एक ज़माने से लिखते रहे हैं हम,
थोड़ा सा सच लिख सकें ऐसी रौशनाई मांगी जाए.

महफ़िलों को हमारी ग़ज़लों ने तन्हा ही किया है,
दानिश-वर शायरों से थोड़ी सी आराई मांगी जाए.

बड़ों के हाथ में देखो दुनिया का क्या हाल हुआ है,
आओ बच्चों से थोड़ी सी रानाई मांगी जाए.



Thursday, January 22, 2015

खोज

फ़क़त इक कली में हासिल-ए-बहार ढूंढते हैं,
हम शगुफ़्ता चेहरों में इश्क के आसार ढूंढते हैं.

जिसके ज़रिये दो घरों की बातें हो जाती थीं,
कहाँ गया खिड़कियों से बंधा वो तार ढूंढते हैं.

इक अब्र आवारा मिरे सर-ए-बाम क्या दिखा,
लोग मेरे आँगन में खोयी बहार ढूंढते हैं.

किसने कब क्यों कैसे गिरायी वो दीवार ख़ुदा जाने,
क़ाज़ी-ए-फ़ासिल मिरे लिबास तले औज़ार ढूंढते हैं.

कहीं से हवाएं मेरे घर की ख़ुशबू ला रहीं हैं,
आओ उस सोंधे से चूल्हे की दयार ढूंढते हैं.

कश्ती है दरिया है और नाखुदा भी साथ है,
उस पार उतरने को अब एक पतवार ढूंढते हैं.

मुद्दतों बाद हमने उसकी कोई तस्वीर देखी थी,
अब घर के गोदाम में वो अखबार ढूंढते हैं.

साज-ओ-सामान के साथ वो घर से चला गया,
शहर-शहर हम फिर से रोज़गार ढूंढते हैं.

इस से पहले की हम ठोकरों से शर हो जाएँ,
पीठ लगाने को कोई दीवार ढूंढते हैं.

अब मिलना है सुकून तो माँ की गोद में मिलेगा,
हम उसको इस जहाँ में बेकार ढूंढते हैं. 

Wednesday, January 21, 2015

चादर

हज़ार चुप रख लो मगर कभी तो सुनानी ही होगी,
जो उम्रों के मरासिम हैं तो कोई कहानी भी होगी.

जो भर रहे हो तो गिन के भरना इसे अज़ाबों से,
क़यामत के रोज़ ये जिस्म की गठरी उठानी भी होगी.

उनकी आँखों के चराग़ फूंकते हो मगर याद रहे,
तुम्हारे घर की रौशनी कभी सयानी भी होगी.

हम अपने रहनुमाओं की रहनुमाई का हुनर देखते हैं,
कहते हैं नए मकान बनाने को बस्ती हटानी भी होगी.

चंद रोज़ को ही मिलती है ये तपिश साँसों की,
जो आज नयी है चादर तो पुरानी भी होगी.

खौफ़ होना अंधेरों का जायज़ है लेकिन सच है,
उजाले देखने को आँखों से पट्टी हटानी भी होगी. 

Monday, January 19, 2015

मनहूस

एक एक फंदे गिन कर पलकों पर जो थे बुने गए,
कुछ ख्वाब कल रात वहीँ दीवारों में चुने गए.

बरसों जिनकी आवाजों पर ख़लाओं की पाबंदी थी,
वो सियाह सन्नाटे फिर कई बज्मों में सुने गए.

रात की रौशनी में उनकी गिरहें साफ़ दिखती हैं,
जो मनहूस रिश्ते दिन के अंधेरों में थे बुने गए.

तुझे है उम्मीद कि वो तेरी हर बात समझ लेंगे,
तारीख को देख यहाँ पैगम्बर भी नहीं सुने गए.


Friday, January 16, 2015

मुन्तशिर

दिल की दिल में रखने से रिश्ते तो बच जाते हैं,
ये अन्दर के ज़लज़ले मगर हम को खा जाते हैं.

यूँ तो सभी को ज़माने में रौशनी से इश्क है,
फिर भी यूँ ही कभी अँधेरे नज़रों को भा जाते हैं.

बराए खौफ़ झुकते हैं सर उसकी सभाओं में,
सुना है फ़रिश्ते रहमत में घर जला जाते हैं.

अपने आगे फैली हुई नन्ही हथेलियों को देख,
कभी सोचा उनकी लकीरों से खुदा कहाँ जाते हैं.

लोग इश्क में भी चोटों का हिसाब रखते हैं,
हम ऐसे मुन्तशिर जज़्बात से घबरा जाते हैं.

लोगों ने नाम कमाए हैं अपने अंदाज़-ए-सुखन से,
हम तो बस लिखते हैं की सुकून पा जाते हैं. 

Tuesday, January 13, 2015

कहानी

उसने कभी जो मुड़ के आवाज़ लगायी होती, 
हम उम्मीदों के असीर थे हमारी रिहाई होती. 

बहुत सुना है ज़माने से कि ख़ुदा होता है, 
उसे देख सके आँखों में ऐसी बीनाई होती . 

कहने को उसकी आँखों में इश्क का समंदर है, 
हम डूब जाते काश इतनी तो गहराई होती.

अधजले से कुछ ख्वाब रह गए इन आँखों में, 
राख हो पाते इतनी तो उम्र पायी होती. 

हैं ढेरों खुशियाँ और गम हर फ़साने में यहाँ,
कभी जो तूने कोई सादी सी कहानी सुनाई होती. 

प्रशांत 

दाग

वो रख के चौखट पे चराग देखते हैं,
बुझते हुए सूरज की आग देखते हैं.

उम्र ने लगाई थी कुछ यादें ज़ेहन पर,
वक़्त कैसे धो रहा है वो दाग देखते हैं.

किस सम्त इस जहां में जल रही है ख़ुदाई,
हम राख में सने हुए बाग़ देखते हैं.

दुनिया के साथ गोल-गोल वो भी घूमते हैं,
इस बात से बेखबर हैं लोगबाग देखते हैं.

यहाँ तक तो ले कर आई है ज़िन्दगी,
अब क्या होता है इसके बाद देखते हैं. 

Saturday, January 10, 2015

गुरुर

खुद को इंसान कहता है और शैतान से बदतर है,
हर लफ्ज़ उसका ज़हर में डूबा हुआ नश्तर है.

उसे रहा इश्क किसी भी बात से नहीं है,
बस इश्क के नाम पे वो लूटता अक्सर है,

कोई भी तारीख हो यही हुनर जानता है,
बस्तियां उजाड़ के ज़मीन को करता बंजर है.

तरक्की मान के जिसपे गुरुर कर रहा है,
वो देख नहीं सकता कयामत की डगर है.

ये कह के वो खुदा का सीना चाक कर रहा है,
जो गिर रहा है तुझ पे वो खुदा का कहर है.

प्रशांत

 

सच

ऐसा नहीं है कि नादानी से काम अटक जाता है,
रास्ता मालूम हो तो भी इंसान भटक जाता है.

कितनी भी होशियारी से तुम बातों को दफ्न करो,
वक़्त कहीं से ढूंढ कर उन्हें पैरों पर पटक जाता है.

सबको है शौक़ नया सारा सच जानने का,
और अगर सच कह दो तो खटक जाता है.

उससे कह दो सूरज का इंतज़ार न किया करे,
चाँद पागल है रातों को आसमान पर लटक जाता है.

प्रशांत 

Friday, January 9, 2015

क़फ़स

विरह की गोद में कोई सिर रख कर रोता है,
दर्द मिलता है जब टूट कर इश्क होता है.

दूर तक निगाहों में नफरत और रंजिश के खेत हैं,
बुज़ुर्ग कहते थे काटेगा वही जो तू बोता है.

कितने ही दर-ओ-बाम उजाड़े हैं आजादी के लिए,
लेकर आजादी अपनी अब वो क़फ़स को रोता है.

एक उम्र से ख्वाहिशों के सफ़र में था,
थक गया है देखो कैसे चैन से सोता है.

प्रशांत 

दौर

मेरी बेइंतेहा मसरुफ़ियत देख कर वो,
छोड़ कर मुझे सफ़र पर तनहा निकल गया.

उसके चेहरे को ग़ज़लों में ढूंढता हूँ मैं,
जो एक शेर सा चुपके से निकल गया.

बिखरे हैं तस्बीह के सब दाने ज़मीं पर,
जिसने थाम के रखा था वो धागा निकल गया.

खुद ही रखने होंगे ज़ख्मों पर मरहम अब तुझे,
मसीहाओं का जो दौर था कब का निकल गया.

प्रशांत 

Thursday, January 8, 2015

लिबास

उसकी तकलीफों का एक ही लिबास होता है,
वो चुप हो जाता है जब भी उदास होता है.

सर सब्ज़ पेड़ सारे पत्तों को दफ्न करने लगते हैं,
खिज़ा का मौसम जब पास होता है.

कौन आसानी से खींच लेता है ज़मीं औरों की,
ये हुनर ही इस जहां में ख़ास होता है.

हर चौखट हर दीवार पे जिंदा लाशें टंगी हैं,
ख़ुदा मर गया है ये एहसास होता है.

प्रशांत 

बेतरतीब

तमाम उम्र की दौड़-भाग,
ख्वाहिशों की बेतरह कांट-छांट,
और बेहिसाब चौखटों की धूल पिये,
गयी रात उसकी हामला बेचैनी ने,
एक बेतरतीब सा ख्वाब जना है...

प्रशांत 

Saturday, January 3, 2015

मुकद्दर

रहेगा गम उसे हर उम्र इस बात का,
मेरे साथ कर न सका वो सौदा जज़्बात का.

मेरे इज़हार पर उसने मज़हब पूछ कर,
दे दिया था फ़र्क हमारे ख़यालात का.

जाम है, शाम है और रकीबों का हुजूम,
देखें क्या होगा हश्र इस मुलाकात का.

उसे न दिखा तो उसकी नज़रों का दोष था,
अँधेरे में डूबना तो मुकद्दर है रात का.

प्रशांत 

Friday, January 2, 2015

उम्मीद

आज शाख से फिर एक फूल उतर जाएगा,
उन्हीं बहानों से ये साल भी गुज़र जाएगा.
मैं जानता हूँ की वो मेरा सुकून ले गया है,
मुझे ये भी पता है पूछने पे मुकर जाएगा.
मुद्दतें हो गयीं मुझे घर से निकले हुए,
मेरी छत ले आना कोई जो उधर जाएगा.
मेरा वक़्त हो कर भी मुझे ही नहीं मिलता,
उम्मीद है इस बरस शायद सुधर जाएगा.

प्रशांत