Wednesday, March 31, 2010

आरज़ू

चमकते ख़्वाबों की रोशनी से ,
अरमानों के घर सजायेंगे,
और कुछ ना हो सका अगर,
एक दूजे का साथ निभाएंगे,
मुमकिन है ये आरज़ू मेरी,
ज़िन्दगी मुझे ये तो बता.

सिसकियाँ

अपनी तो बाकी ऐसे ही गुज़र जायेगी,
ना सही कोई, तन्हाई साथ निभाएगी,
अपने जीने की रकम युहीं अदा करेंगे,
सिसक लेंगे चुपके से बेजान रातों में.

Wednesday, March 24, 2010

घर

जिन्हें ढूँदती हैं नज़रें ये वो मंज़र नहीं है,

ना हमसफ़र ना हमराह कोई ये वो राह-ए-सफ़र नहीं है,

मैंने तो ख्वाब देखा था गुलिस्ताँ में आशियाँ का,

हर तरफ बिखरी हैं यहाँ लाशें ये वो घर नहीं है.

Tuesday, March 23, 2010

लम्हे

गुपचुप खिसकते लम्हों ने ,
देखो ये क्या कर दिया है ,
जो था जुदा सा मुझसे ,
उसे मुझसा कर दिया है.

Monday, March 22, 2010

कुछ अल्फाज़

पैबस्त हैं दिल में यादें तेरी, करता हूँ जिनसे मैं बातें तेरी,
अब तो एहसास तेरा हवाओं में है, दूर है तू फिर भी निगाहों में है,
मेरी रगों में तेरा प्यार बहता है, धडकनों को तेरा इंतज़ार रहता है,
है चेहरा तेरा दिल की हर एक दीवार पे , और बैठे हैं ख्वाब तेरे मन के हर एक तार पे,




Sunday, March 21, 2010

मंज़र

निगाहें  बहुत देर एक मंज़र पे ठहरी रही,
पलके जो झपकी ज़रा सी वो मंज़र कहीं नहीं,
कौन कहता है जो चाहो वो तुम्हे मिल जाएगा,
हसीं लम्हा ये ज़िन्दगी का सभी को मयस्सर नहीं. 

चिराग तले अँधेरा



एक कहावत जो माँ से सुनी थी आज उसके अस्तित्व को महसूस किया है. इससे चिराग की बदकिस्मती कहिये या उसकी नाकामी.  वो चिराग जो अपनी सीमित शक्ति के बावजूद दूसरों को रास्ता दिखता है अपने अन्दर एक घना अँधेरा छुपाये होता है. ऐसा ही कुछ मै अपने आसपास देख सकता हूँ.  एक विभाग जो की अपने मूल रूप में सम्प्रेषण का घर है, वहां स्वयं सम्प्रेषण नामक वस्तु का आभाव है.  कोई किसीसे कुछ बोल नहीं सकता क्योकि विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यहाँ लागू नहीं होती.  आप नहीं जान सकते की ऐसा क्यूँ है.  हाँ अगर आपने धरा के विपरीत जाने की कोशिश की तो मूह की खानी पड़ सकती है.  सारा सम्प्रेषण एक्मार्गीय है. खैर जैसे इस दुनिया की यानि की सम्प्रेषण की दुनिया की बाकि समस्याएँ दूर हुई है इस समस्या का भी कोई न कोई हल तो अवश्य होगा. जरुरत है उस चिराग को चिराग दिखाने की. 

Friday, March 19, 2010

कोयल और बौर

कब चुपके से पतझड़ की ओट लेकर गरमी घर तक आ गयी पता ही नहीं चला. हरे भरे पेड़ पलक झपकते ही बूढ़े नज़र आने लगे.   सर्दियों की कुनकुनी धूप में हौले से एक जलन शामिल हो गयी है.  इस बदलते मौसम ने जहां कुछ चीजों को छीना वहीँ कुछ तोहफे  भी दिए हैं.  इन सौगातों में आम की बौर की महक और कोयल की रूहानी आवाज़ सबसे कीमती है.  अपने प्यार को तलाशती कोयल बौरों की महक को उसकी खुशबू समझ लेती है.  इस धोखे में वो बेचारी सारा वक़्त तपती दोपहरिया में उसे पुकारती फिरती है. प्यार की ये पुकार सारे वातावरण को रूमानी बना देती है.  कोयल की बेचैन खोज ने बौरों को तो नया रूप दिया पर वो खुद अकेली रह गयी.  साल दर साल भटकते रहने पर भी उसका प्यार मुक्कम्मल न हो सका. प्यार की अक्सर यही परिणति होती है, वो वफ़ा और कुर्बानी की आंच में तप के भी बजाय कुंदन होने के राख हो जाता है.

Saturday, March 13, 2010

तिनका-तिनका

तिनका तिनका करके मैंने थोड़े अरमान जुटाए थे ,
आहिस्ता आहिस्ता पहुचुँगा मैं ,
ऐसी उम्मीदों के साए थे ,
अब हर तिनका वो जिंदगी की आग में जलता है, 
बूँद बूँद मेरी आँखों से हर लम्हा कुछ रिसता है.