अल्फ़ाज़
एक नज़रिया !
Sunday, May 25, 2014
खानाबदोश
वो घर अपना छोड़ के मकान ढूंढता है,
गली-गली जीने का समान ढूंढता है.
खानाबदोशों को मिलता है सफ़र और तनहाई,
कैसे-कैसे दिल में अरमान लिए घूमता है.
टुकड़ा-टुकड़ा रोटी के ढेर में दबा,
वो रेहन पर रखे सारे ख्वाब भूलता है.
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