Sunday, May 18, 2014

स्याही

कुछ लिखने की चाहत और कुछ अर्थपूर्ण लिखने में बड़ा फ़र्क है. कागज़-कलम ले कर अगर बैठ भी जाओ तो शब्दों की स्याही नहीं मिलती. और अगर थोड़ी मशक्कत करके शब्दकोष से थोड़ी सी स्याही ले भी ली तो भावनाओं का खुरदुरापन कागज़ पर उतरने लगता है. फिर जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ने लायक होता है वह अकसर खुद को ही समझ नहीं आता. अब आप कहेंगे जनाब यह तो हर लिखने वाले को लगता है कि उसका लिखा दमदार नहीं है. आप अपनी लेखनी लोगों के सामने रखिये और उन्हें तौलने दीजिये. कई बार एक ही चीज़ लगातार देखते रहने से आँखें उनकी बारीकी पकड़ नहीं पातीं. अब बया को थोड़े ही पता होता है कि जो घोंसला उसने बुना है वह क्या लाजवाब है, यह तो हम और आप देख के उसकी खूबसूरती से गदगद हो जाते हैं. लेकिन आप ही बताइये कि परीक्षार्थी जब परीक्षा देकर बाहर आता है तो उसे भली-भांति पता होता है ना कि कितने नंबर पाने वाला है. और जहां तक अपना सवाल है, आज तक हमारा अनुमान गलत नहीं हुआ. खैर साल भर पहले भी एक बार ऐसे ही लिखने के लिए कमर कसी थी पर कुछ नतीजा निकला नहीं था. इस बार फिर ताकत बटोरी है. देखते हैं शब्दों की स्याही कौन सा चित्र उकेरती है...

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