Thursday, May 22, 2014

मोटी बुद्धि

राघव अभी गेट के अन्दर घुसा ही था, कि शोभा की नरकट सी आवाज़ ने उसके सुकून को तार-तार कर दिया. एक बार तो उसका मन हुआ कि उलटे पाँव वापस चला जाए. जाकर किसी घाट किनारे बैठे या फिर कहीं मंदिर में डेरा डाल लें. पर दिन भर की थकान के बाद उसे बैठने का मन भी नहीं होता. खैर सारी हिम्मत बटोर कर और भारी दिल के साथ वो अन्दर बढ़ गया. बैठक का दरवाज़ा उसके तीन साल के बेटे अंकित ने खोला था. उस बेचारे के चेहरे का भाव देखकर राघव को लगा जैसे आईना देख रहा हो. दरवाज़ा खोल के वो मासूम सी जान लटके हुए मुंह के साथ एक कोने में जा कर बैठ गया. "मुझे नहीं रहना इस घर में और. या तो तुम कोई किराए का मकान खोज लो या मैं जा रही हूँ मायके. मैं कोई नौकरानी नहीं कि सबका खाना बनाती रहूँ दिन भर", शोभा ने फरमान सुना दिया था. राघव की चार साल की शादी में कुछ अगर स्थिर रहा है तो वो है शोभा की अलग हो जाने की मांग. इन चार सालों में से बमुश्किल डेढ़ साल ही शोभा ने ससुराल में गुज़ारे थे. ऐसा नहीं था कि राघव के अन्दर माँ-बाप के लिए समर्पण ज्यादा था, बल्कि उसकी आमदनी इतनी नहीं थी कि वो अलग हो कर एक बच्चे के साथ परिवार संभाल सके. ये बात वो शोभा को समझा-समझा के थक चुका था. पर उसकी मोटी बुद्धि में कुछ घुसे तब ना. ये खिच-खिच अब तो रोज़ की दिनचर्या में शामिल हो गयी थी. राघव ने चुप-चाप मुंह-हाथ धोया, खाना खाया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. शोभा के कमरे में आने से पहले वो एक झपकी ले लेना चाहता था. हालांकि उस दिन सोने की बजाय उसने अपने दोस्त अमित को फ़ोन लगा दिया, "यार कहीं एक कमरे का मकान देख ज़रा. और सुन किराया तीन-चार हज़ार से ज्यादा नहीं होना चाहिए." फ़ोन रखने के बाद राघव सोने की कोशिश करने लगा.

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