Tuesday, May 27, 2014
Sunday, May 25, 2014
खानाबदोश
वो घर अपना छोड़ के मकान ढूंढता है,
गली-गली जीने का समान ढूंढता है.
खानाबदोशों को मिलता है सफ़र और तनहाई,
कैसे-कैसे दिल में अरमान लिए घूमता है.
टुकड़ा-टुकड़ा रोटी के ढेर में दबा,
वो रेहन पर रखे सारे ख्वाब भूलता है.
Thursday, May 22, 2014
मोटी बुद्धि
राघव अभी गेट के अन्दर घुसा ही था, कि शोभा की नरकट सी आवाज़ ने उसके सुकून को तार-तार कर दिया. एक बार तो उसका मन हुआ कि उलटे पाँव वापस चला जाए. जाकर किसी घाट किनारे बैठे या फिर कहीं मंदिर में डेरा डाल लें. पर दिन भर की थकान के बाद उसे बैठने का मन भी नहीं होता. खैर सारी हिम्मत बटोर कर और भारी दिल के साथ वो अन्दर बढ़ गया. बैठक का दरवाज़ा उसके तीन साल के बेटे अंकित ने खोला था. उस बेचारे के चेहरे का भाव देखकर राघव को लगा जैसे आईना देख रहा हो. दरवाज़ा खोल के वो मासूम सी जान लटके हुए मुंह के साथ एक कोने में जा कर बैठ गया. "मुझे नहीं रहना इस घर में और. या तो तुम कोई किराए का मकान खोज लो या मैं जा रही हूँ मायके. मैं कोई नौकरानी नहीं कि सबका खाना बनाती रहूँ दिन भर", शोभा ने फरमान सुना दिया था. राघव की चार साल की शादी में कुछ अगर स्थिर रहा है तो वो है शोभा की अलग हो जाने की मांग. इन चार सालों में से बमुश्किल डेढ़ साल ही शोभा ने ससुराल में गुज़ारे थे. ऐसा नहीं था कि राघव के अन्दर माँ-बाप के लिए समर्पण ज्यादा था, बल्कि उसकी आमदनी इतनी नहीं थी कि वो अलग हो कर एक बच्चे के साथ परिवार संभाल सके. ये बात वो शोभा को समझा-समझा के थक चुका था. पर उसकी मोटी बुद्धि में कुछ घुसे तब ना. ये खिच-खिच अब तो रोज़ की दिनचर्या में शामिल हो गयी थी. राघव ने चुप-चाप मुंह-हाथ धोया, खाना खाया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. शोभा के कमरे में आने से पहले वो एक झपकी ले लेना चाहता था. हालांकि उस दिन सोने की बजाय उसने अपने दोस्त अमित को फ़ोन लगा दिया, "यार कहीं एक कमरे का मकान देख ज़रा. और सुन किराया तीन-चार हज़ार से ज्यादा नहीं होना चाहिए." फ़ोन रखने के बाद राघव सोने की कोशिश करने लगा.
Tuesday, May 20, 2014
लड्डू
उसने कुछ देर इधर-उधर देखा और फिर धीरे से सब की नज़र बचा कर एक लड्डू उठा लिया. अब भला उससे कैसे इतना देर इंतज़ार होता कि पहले भगवान जी खा लें फिर वो खाये. और ऐसा भी नहीं है कि उसने संयम नहीं रखा. माँ के कहने पर पिछले दो घंटे से खुद को संभाले बैठा है. कभी कोई बोलता राहुल ये ले आ, तो कोई कहता कि राहुल ये पहुंचा दे. बेचारा बच्चा एक अदद लड्डू के लिए सब की सुन रहा था. सब खाली अपने में मगन थे, किसी से ये नहीं हुआ कि एक लड्डू उसे दे ही दें. कहाँ तो कहते फिरेंगे की बच्चे भगवान का रूप होते हैं. जब भगवान के लिए बच्चे को तरसाते हैं तब याद नहीं आता. खैर राह देखते-देखते जब राहुल से रहा नहीं गया तो उसने मन ही मन भगवान जी को सॉरी कहा और पहले खुद को भोग लगा लिया. भगवान जी तो शायद उसकी इस हरकत पर मुस्कुरा रहे थे पर उसकी बुआ से ये बात सहन नहीं हुई. आखिर बच्चों को सही-गलत का पता होना चाहिए की नहीं. बस ज़िन्दगी का यही फ़लसफ़ा सीखाने के उद्देश्य से बुआ ने उस बेचारे के हाथ से लड्डू छीन लिया. इतना ही नहीं उसे सब के सामने दो-चार सुना भी दी. राहुल सुखा सा मुंह ले कर वहां से चला गया. बुआ जी ने वो लड्डू वापस थाल में रखा और उसे उठा कर पीछे कमरे में रखने चली गयी. कमरे में थाल रख कर बुआ अभी पलती ही थीं कि उनकी नज़र अपनी भाभी की साड़ी के नीचे से झांकते 500 रुपये के नोट पर पड़ी. बुआ जी ने कुछ देर इधर-उधर देखा और...
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Monday, May 19, 2014
काफ़िर
मुश्किलों में देख कर कश्ती अपनी वो रोने लगे,
काफ़िर भी ख़ुदा के नाम से आस्तीनें भिगोने लगे.
इन आतिश-फ़िशानी राहों का जब इल्म था तुम्हें,
फ़िर क्यों दामन-ए-हयात में यूँ सपने पिरोने लगे.
कुव्वते बर्दाश्त से बढ़ने लगे जब बोझ ज़िन्दगी के,
लोग बाखुशी खुद को शराब में डुबोने लगे.
तेरी सोहबत का जब से शक है ज़माने को,
हम भी इल्मफरोशों में शामिल होने लगे.
कुछ रोज़ की ही थी वो रोशनी यार की,
हम फिर उन्हीं बेआवाज़ अंधेरों में खोने लगे.
काफ़िर भी ख़ुदा के नाम से आस्तीनें भिगोने लगे.
इन आतिश-फ़िशानी राहों का जब इल्म था तुम्हें,
फ़िर क्यों दामन-ए-हयात में यूँ सपने पिरोने लगे.
कुव्वते बर्दाश्त से बढ़ने लगे जब बोझ ज़िन्दगी के,
लोग बाखुशी खुद को शराब में डुबोने लगे.
तेरी सोहबत का जब से शक है ज़माने को,
हम भी इल्मफरोशों में शामिल होने लगे.
कुछ रोज़ की ही थी वो रोशनी यार की,
हम फिर उन्हीं बेआवाज़ अंधेरों में खोने लगे.
Sunday, May 18, 2014
स्याही
कुछ लिखने की चाहत और कुछ अर्थपूर्ण लिखने में बड़ा फ़र्क है. कागज़-कलम ले कर अगर बैठ भी जाओ तो शब्दों की स्याही नहीं मिलती. और अगर थोड़ी मशक्कत करके शब्दकोष से थोड़ी सी स्याही ले भी ली तो भावनाओं का खुरदुरापन कागज़ पर उतरने लगता है. फिर जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ने लायक होता है वह अकसर खुद को ही समझ नहीं आता. अब आप कहेंगे जनाब यह तो हर लिखने वाले को लगता है कि उसका लिखा दमदार नहीं है. आप अपनी लेखनी लोगों के सामने रखिये और उन्हें तौलने दीजिये. कई बार एक ही चीज़ लगातार देखते रहने से आँखें उनकी बारीकी पकड़ नहीं पातीं. अब बया को थोड़े ही पता होता है कि जो घोंसला उसने बुना है वह क्या लाजवाब है, यह तो हम और आप देख के उसकी खूबसूरती से गदगद हो जाते हैं. लेकिन आप ही बताइये कि परीक्षार्थी जब परीक्षा देकर बाहर आता है तो उसे भली-भांति पता होता है ना कि कितने नंबर पाने वाला है. और जहां तक अपना सवाल है, आज तक हमारा अनुमान गलत नहीं हुआ. खैर साल भर पहले भी एक बार ऐसे ही लिखने के लिए कमर कसी थी पर कुछ नतीजा निकला नहीं था. इस बार फिर ताकत बटोरी है. देखते हैं शब्दों की स्याही कौन सा चित्र उकेरती है...
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