Thursday, December 18, 2014

शर

बेवजह लफ़्ज़ों को जोड़ कर कोई नज़्म कही जाए,
या कि ज़िन्दगी की नज़्म को लफ़्ज़ों की डोर दी जाए.

खुदापरास्तों ने सर सब्ज़ हवा को शर कर दिया है,
काफिरों ने सहेजी हैं कुछ सांसें, आओ बांटी जाए.

मुर्दा किताबों के हर्फ़ में जब इंसानियत घुटने लगे,
समझो वक़्त हो चला है कि किताब बदल दी जाए.

अब की शायद सेहरा में भी बाग़ लगेंगे,
ये जो नन्हीं लाशें हैं चलो दफ्न की जाए. 

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