Thursday, December 18, 2014

शर

बेवजह लफ़्ज़ों को जोड़ कर कोई नज़्म कही जाए,
या कि ज़िन्दगी की नज़्म को लफ़्ज़ों की डोर दी जाए.

खुदापरास्तों ने सर सब्ज़ हवा को शर कर दिया है,
काफिरों ने सहेजी हैं कुछ सांसें, आओ बांटी जाए.

मुर्दा किताबों के हर्फ़ में जब इंसानियत घुटने लगे,
समझो वक़्त हो चला है कि किताब बदल दी जाए.

अब की शायद सेहरा में भी बाग़ लगेंगे,
ये जो नन्हीं लाशें हैं चलो दफ्न की जाए. 

Wednesday, December 17, 2014

उधार

मैं आज भी रुका हूँ वहीँ इंतज़ार सा,
तेरे स्पंदन से स्पंदित तार सा,
कश्ती पे टंगी पतवार सा,
मैं आज भी रुका हूँ वहीँ इंतज़ार सा.

टहनियां सब हरे पत्तों से भर गयीं,
ज़मीं तक उतरती धूप शीतल कर गयीं,
रह गया हवाओं में फिर भी खार सा,
मैं आज भी रुका हूँ वहीँ इंतज़ार सा.

उम्रों के टेढ़े रास्ते अब सीधा सा सफ़र है,
हर दीवार से उधड़ता वक़्त का असर है,
रूह पे भारी है अब भी कुछ उधार सा,
मैं आज भी रुका हूँ वहीँ इंतज़ार सा.